ईसाइयत, इसलाम और हिंदू धर्म, ये धर्म नहीं है

जिसे लोग धर्म समझते है, वह धर्म नहीं है। ईसाइयत, इसलाम और हिंदू धर्म, ये धर्म नहीं है। लोग जिन्‍हें धर्म कहते है, वे मृत चट्टानें हे। मैं तुम्‍हें धर्म नहीं धार्मिकता सिखाता हूं—एक बहती हुई सरिता, पग-पग पर मोड़ लेती है, निरंतर अपना मार्ग बदलती है। लेकिन अंतत: सागर तक पहुंच जाती है।

ये सभी तथाकथित धर्म तुम्‍हारे लिए कब्रें खोदते है। तुम्‍हारे प्रेम को तुम्‍हारे आनंद को और तुम्‍हारे जीवन को नष्‍ट करने के काम में संलग्‍न रहे है। और ईश्‍वर के बारे में, स्‍वर्ग नरक के बारे में, पुनर्जन्‍म ...ओर न जाने कैसी-कैसी व्‍यर्थ बातों के विषय में वे तुम्‍हारी खोपड़ी में रंगीन कल्‍पनाएं मनमोहक भ्रम और भ्रांत धारणाओं का कूड़ा-करकट भरते रहते है। मेरा तो भरोसा है प्रवाह मे, परिवर्तन में, गति में, क्‍योंकि यही जीवन का स्‍वभाव है। यह जीवन केवल एक स्‍थायी चीज को जानता है। और वह है: सतत परिर्वतन सिर्फ परिवर्तन ही कभी परिवर्तन नहीं होता। अन्‍यथा हर चीज बदल जाती है।

कभी पतझड़ आ जाता है। और वृक्ष नंगे हो जाते है। सारी पत्‍तियां चुपचाप,बिना शिकायत के गिर जाती है। और शाति पूर्वक पुन: उसी मिट्टी में विलीन हो जाती है। नीले आकाश में बाँहें फैलाए नग्‍न खड़े वृक्षों का एक अपना ही सौंदर्य है। उनके ह्रदय में एक गहन आशा और आस्‍था अवश्‍य होती होगी क्‍योंकि वह जानते है कि जब पुरानी पत्‍तियां झड़ती है तो नई आती ही होंगी।

और जल्‍दी ही नई, ताजी और सुकोमल कोंपलें फूटने लगती है। धर्म एक मृत संगठन नहीं है, संप्रदाय नहीं है, वरन एक तरह की धार्मिकता होनी चाहिए। एक ऐसी जीवंत गुणवता, जिसमें समाहित है: सत्‍य के साथ होने की क्षमता। प्रामाणिकता, सहजता, स्‍वाभाविकता, प्रेम से भरे ह्रदय की धड़कनें और समग्र अस्‍तित्‍व के साथ मैत्रीपूर्ण लयबद्घता।

इसके लिए किन्‍हीं धर्मग्रंथों और पवित्र पुस्‍तकों की आवश्‍यकता नहीं है। सच्‍ची धार्मिकता को मसीहाओं, उद्धारकों, पवित्र ग्रंथों, पादरियों, पोपों, पंडित, पुरोहित, मौलवियों, तुम्‍हारे शंकराचार्य की और किसी, मंदिर,मस्जिद, चर्चों की आवश्यकता नहीं है। क्‍योंकि धार्मिकता तुम्‍हारे ह्रदय की खिलावट है। वह तो स्‍वयं की आत्‍मा के, अपनी ही सत्‍ता के केंद्र-बिंदु तक पहुंचने का नाम है। और जिस क्षण तुम अपने आस्‍तित्‍व के ठीक केंद्र पर पहुंच जाते हो।

उस क्षण सौंदर्य का, आनंद का, शांति का और आलोक का विस्‍फोट होता है। तुम एक सर्वथा भिन्‍न व्‍यक्‍ति होने लगते हो। तुम्‍हारे जीवन में जो अँधेरा था वह तिरोहित हो जाता है। और जो भी गलत था वह विदा हो जाता है। फिर तुम जो भी कहते हो वह परम सजगता और पूर्ण समग्रता के साथ होते हो। मैं तो बस एक ही पुण्‍य जानता हूं और वह है: सजगता।--

ओशो

Posted by राजबीर सिंह at 1:10 am.
 

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