आंदोलन करना है तो सरकार के इशारे पर नाचो

सर्वोच्च न्यायालय के नोटिस के जवाब में दिल्ली पुलिस ने भले ही लाठीचार्ज से मना कर दिया हो.

और सारी तोहमत बाबा रामदेव और उनके हजारों अनशनकारी समर्थकों पर थोपी दी हो लेकिन चार जून की रात्रि रामलीला मैदान पर की गई पुलिस कार्रवाई शर्मनाक है. पुलिस ने अचानक हमला बोल कर अनशनस्थल पर सो रहे बाबा व समर्थकों पर आंसू गैस के गोले दागे, सोते लोगों को उठा-उठाकर फेंका, कुछ लोगों पर लाठीचार्ज भी किया तथा महिलाओं से अभद्रता की, कुछ जगह र्इंट-पत्थरों का भी इस्तेमाल किया; वह एक बर्बर, असभ्य और असंवैधानिक कार्रवाई थी, जिसका उद्देश्य लोगों को भयभीत कर भगाना था. पर इसे पुलिस कार्रवाई कहना सही नहीं होगा.

इसे सरकारी दमन की कार्रवाई ही कहा जाना चाहिए क्योंकि पुलिस ने जो कुछ भी किया, वह सरकार व उच्चाधिकारियों के निर्देश पर ही किया. अगले दिन केंद्र सरकार के दो मंत्रियों-कपिल सिब्बल व सुबोधकांत सहाय-ने सरकारी पक्ष की सफाई देने का प्रयास किया वह अपने आप में संविधान व कानून के उल्लंघन की केंद्र का कबूलनामा है.

श्री सिब्बल श्री सहाय ने पुलिस कार्रवाई के पक्ष में निम्न तर्क दिए

(1) बाबा रामदेव को रामलीला मैदान पर केवल योग शिविर लगाने की अनुमति दी गई थी. वे राजनीति का योग सिखाने लगे।

(2) मैदान पर निरंतर बाहर से लोग बुलाए जा रहे थे जिससे कानून व्यवस्था को नुकसान पहुंचने का खतरा था।

(3) बाबा ने प्रधानमंत्री को पत्र लिखकर अनशन खत्म करने का वचन दिया था, जिससे वे मुकर गए और सरकार को यह कार्रवाई करनी पड़ी।

(4) दिल्ली पुलिस के संयुक्त कमिश्नर के अनुसार बाबा की जान को खतरा था. किसी के पास कोई विस्फोटक हो सकता था; अत: उनकी जान बचाने के लिए यह कदम उठाया गया.

केंद्र और दिल्ली पुलिस के अधिकारियों के उपर्युक्त तर्कों की पड़ताल जरूरी है-

(1) अगर बाबा रामदेव अपनी अनुमति की शर्तों का उल्लंघन कर रहे थे तो सरकार या दिल्ली पुलिस अधिकारियों को दिन में ही अनुमति निरस्त कर उन्हें सूचित करना था. वहां स्पीकर से ऐलान किया जा सकता था तथा लोगों को स्थान छोड़ने को कहा जा सकता था. अगर लोग इसके बाद भी स्थान छोड़ने से इनकार करते तब किसी कार्यवाही का प्रश्न उठता।

(2) देर रात्रि 1 बजे जब अधिकतर लोग सोए हुए थे तब पुलिस से हमला कराना दुश्मन की फौज पर हमला कराने जैसा है।

(3) पुलिस बाहर से आने वालों को रेलवे स्टेशन से ही वापस कर सकती थी.

दिल्ली की सीमाएं सील कर उन्हें रोक सकती थी. यह प्रयोग दिल्ली पुलिस कई बार कर भी चुकी है।

(4) लोगों की तलाशी ली जा सकती थी. परंतु अब पुलिस कार्रवाई के बाद जाहिर हो गया कि सभी लोग शांतिपूर्ण और निहत्थे थे. किसी के पास से हथियार बरामद नहीं हुआ।

(5) रात्रि 2 बजे महिलाओं को संडास से निकालकर अभद्रता करना, रोती-बिलखतीं महिलाओं के साथ मारपीट कैसे न्यायसंगत है?

(6) अगर बाबा ने पीएम को लिखे पत्र या गोपनीय समझौते का उल्लंघन किया तो यह अनैतिकता है परंतु इसी बिना पर हजारों लोगों का दमन, लाठीचार्ज और फिर महिलाओं के अपमान का लाइसेंस नहीं दिया जा सकता.

मेरे ख्याल में प्रधानमंत्री का यह कथन पूर्णतया गलत है कि कोई विकल्प नहीं था. उनके मंत्रियों ने जानबूझकर दमन का व बदले का विकल्प चुना. श्री सिब्बल व श्री सहाय के कथनों की भाषा का स्पष्ट संकेत यही है कि धरना-प्रदर्शन अब तभी कर सकते हो जब सरकार के इशारे पर करोगे. सरकार के इशारे पर बैठोगे, सरकार के इशारे पर उठोगे वरना पीटे जाओगे. क्या केंद्र सरकार के उपर्युक्त विचारों की स्थापना भारतीय संविधान का खुला उल्लंघन नहीं हैं, जिसमें देश के नागरिकों को शांतिपूर्ण धरने व प्रदर्शन की अनुमति है.

इस पर रोक लगाकर तथा यह व्यवस्था बनाना कि केवल कांग्रेस या केंद्र सरकार के लिए अनुकूल धरनों को ही अनुमति दी जाएगी, एक खतरनाक शुरुआत होगी. केंद्र और कांग्रेस को भी याद रखना चाहिए कि दुनिया में कुर्सी पर कोई भी स्थायी नहीं रहता. मुसोलनी भी ताकतवर तानाशाह था परंतु उसका क्या हाल हुआ? यह इतिहास के पन्नों में दर्ज है.

दरअसल, चिंता की बात यह है कि समूचे देश में धीरे-धीरे लोकतांत्रिक अधिकारों को सीमित किया जा रहा है. अधिकतर राज्यों की राजधानियों व महानगरों में तो धारा 144 एक स्थायी व्यवस्था बन गई है. सत्ता क्षेत्रों के आसपास तो लगभग सभी जगह. दिल्ली पुलिस ने कुछ वर्ष पहले गांधी जी के जन्मदिवस अवसर पर लोकतांत्रिक समाजवादी पार्टी को बहुराष्ट्रीय कम्पनियों के विरुद्ध राजघाट पर धरना देने की अनुमति नहीं दी थी.

सरकारी तानाशाही का यह आलम अकेले दिल्ली में नहीं वरन समूचे देश में फैल रहा है. उत्तर प्रदेश सरकार ने नियम बनाया है कि लखनऊ में धरना-प्रदर्शनों के लिए सात दिन पूर्व अर्जी देनी होगी. भोपाल के जिला प्रशासन ने केवल चार पार्क धरना-प्रदर्शन के लिए चिह्नित किए हैं.

छत्तीसगढ़ की राजधानी रायपुर में शहर के कूड़ाघर से सटकर धरनास्थल घोषित किया गया है. जब सरकारी पक्ष को कुछ करना होता है तो प्रशासन नियम-कायदों को कुर्सी की सीट के नीचे दबाकर सत्ताधीशों के चरणों में बिछ जाता है. जब प्रतिपक्ष कुछ करता है तो नियमों की किताब को लागू किया जाता है. प्रशासन का यह चरित्र भी भेदभाव का संविधान व कानून के विरुद्ध है. हमारे देश में स्वतंत्र नौकरशाही की व्यवस्था संविधान में है परंतु क्रमश: नौकरशाही व प्रशासनतंत्र दलीय निष्ठा व दलीयतंत्र में बदल रहा है.

इसमें कोई दो मत नहीं हो सकते कि बाबा रामदेव ने भी नैतिक मूल्यों का पालन नहीं किया. सरकार ने राजधर्म व बाबा ने संत धर्म त्याग दिया. मेरी राय में बाबा को भागना नहीं था वरन वहीं गिरफ्तार होना था. इससे उनका सम्मान बढ़ता. बाबा का नैतिक साधनों को त्यागना ही उनकी हार है. बहरहाल, 4 जून की इस बर्बरता की तुलना आपातकाल से तो नहीं हो सकती क्योंकि आपातकाल के पूर्व एक राष्ट्रीय जनआंदोलन था.

न्यायपालिका का श्रीमती इंदिरा गांधी के विरुद्ध निर्णय आ चुका था तथा सबसे ऊपर यह कि सभी संवैधानिक संस्थाओं को अधिकारों से वंचित कर दिया गया था. प्रेस सेंसरशिप थी, न्यायपालिका की कार्यवाही पर रोक लगा दी गई थी परंतु आज वे सभी संस्थाएं जिंदा हैं, सक्रिय हैं.

प्रेस अपना काम कर पा रहा है. सुप्रीम कोर्ट, राष्ट्रीय मानव अधिकार आयोग, महिला आयोग जैसी संस्थाओं ने स्वप्रेरणा से ही कार्य की कार्यवाही शुरू की है. हां, इतना अवश्य कहा जा सकता है कि रामलीला ग्रांउड पर सरकार का कार्य अलोकतांत्रिक, असंविधानिक, अवैधानिक, अमानवीय सीधे-सीधे भयादोहन (ब्लैकमेलिंग) जैसा है.

या तो हमारे इशारे पर नाचो वरना पिटो और भागो. यह लोकतांत्रिक अधिकार आजादी को सीमित कर कांग्रेस नियंत्रित आजादी में बदलने का खतरनाक षड्यंत्र की पहल है. शायद यह अघोषित आपातकाल जैसा है. अब कांग्रेस ने संजय गांधी प्रवृत्ति का पुन: उदय हो गया है, जिसकी आलोचना कुछ दिनों पूर्व ही स्वत: पार्टी ने अपनी स्मारिका में की थी

साभार : सहारा समय

रघु ठाकुर
लेखक एवं सामाजिक चिंतक

Posted by राजबीर सिंह at 8:29 pm.
 

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