अगले दस दिन में लीबिया में नई सरकार का गठन

लीबिया के राष्ट्रीय परिवर्तनकारी समिति के उप प्रमुख ने कहा है कि वहां अगले दस दिन में नई सरकार का गठन होगा.

परिवर्तनकरी समिति के प्रधानमंत्री के तौर पर काम कर रहे महमूद जिबरिल ने कहा कि अगले एक सप्ताह या दस दिन में देश में नई सरकार बनेगी.

उनका कहना था कि इस नई सरकार में लीबिया के विभिन्न क्षेत्रों से प्रतिनिधियों को शामिल किया जायेगा.

उन्होंने बताया कि विद्रोही सेना इस समय लीबिया को आजाद कराने में लगी है और जैसे ही देश आजाद होता है, यहां नई सरकार का गठन होगा।

लीबिया में पश्चिम की जीत एक त्रासदी

अगर वह जिंदा या मुर्दा पकड़ा जाता है, और यह अब किसी भी दिन हो सकता है.

इस पर आंसू बहाने वालों की तादाद कर्नल मुअम्मर गद्दाफी के बेहद नजदीकी लोगों के सिवा कोई ज्यादा नहीं होगी. पश्चिम का समर्थन प्राप्त विद्रोही सेना त्रिपोली के दक्षिण-पूर्व में स्थित बानी वालिड में उसके करीब पहुंचती जा रही है.

अपने लोगों को आतंक के साए में बनाए रखते और देश की विशाल तेल सम्पदा का प्रयोग एक विमानसेवा पर लॉकरबी आतंकी हमले सहित अनेक दुस्साहसी करतूतों और जन संहार के हथियारों को हासिल करने की कोशिश करते हुए गद्दाफी ने 42 सालों तक राज किया है.

इस सबके बावजूद गद्दाफी की विदाई के इस मौके को उस तरीके के बचाव के लिए इस्तेमाल नहीं किया जाना चाहिए जिससे अमेरिकी समर्थन के साथ ब्रिटेन और फ्रांस के नेतृत्व में लीबिया पर हजारों हवाई हमले करके और भारी संख्या में नागरिकों को मौत के घाट उतारने के साथ-साथ गैर कानूनी ढंग से उसकी हत्या करने की कोशिशों के द्वारा उसको गद्दी से हटाने के प्रयास किए गए हैं. उनका यह अभियान व इसके पीछे काम कर रहा दिमाग 'साम्राज्यी दम्भ' की बू देता है और वैश्विक सुरक्षा व अंतरराष्ट्रीय सम्बंधों में न्यायसंगति तथा संतुलन के लिए एक बुरा शकुन है.

यह कोई छोटी-मोटी विडम्बना नहीं कि दूसरे विश्व युद्ध से पहले लीबिया को एक पश्चिमी ताकत इटली ने अपना उपनिवेश बनाया और जातिसंहार की हद तक जुल्म का अभियान चलाया था. लीबिया पर ब्रिटेन का कब्जा 1940 और "50 के दशक में हुआ जिसने अपनी सेना को "69 में एक उपनिवेशविरोधी क्रांति के जरिये गद्दाफी द्वारा सत्ता पर कब्जा कर लिए जाने तक बनाए रखा था. एक अन्य विडम्बना यह भी है कि बाद में गद्दाफी को इन्हीं पश्चिमी ताकतों ने आगे बढ़ाया, उसकी सेना तथा तेल उद्योग का निर्माण किया था.

गद्दाफी एक नहीं, दसियों बार हटाए जाने के लायक है, पर यह काम उसके अपने उन लोगों के द्वारा होना चाहिए जिनको उसने सताया और उत्पीडि़त किया था, न कि विदेशी ताकतों द्वारा. आंग्ल-फ्रांसीसी हमले संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद के 1973 में पारित प्रस्ताव को लागू करने के नाम पर किए गए थे जिसमें इसके सदस्य-राज्यों को हमले के खतरे में आने वाले नागरिक व नागरिक-आबादी वाले इलाकों की रक्षा करने के लिए सभी जरूरी उपाय करने का अधिकार दिया गया था. इन इलाकों में बेनगाज़ी शामिल था, लेकिन लीबिया की धरती पर विदेशी फौजों के उतरने की मनाही थी.

परंतु प्रस्ताव अपने आप में संयुक्त राष्ट्र घोषणापत्र की धारा 2 (7) का उल्लंघन करता है जिसमें कहा गया है: मौजूदा घोषणापत्र का कुछ भी संरा को उन मामलों में दखल देने का हक नहीं देता जो मूलतया किसी भी राज्य के घरेलू अधिकार क्षेत्र में आते हैं. यह सही है कि इसका प्रयोग जातिसंहार, युद्ध अपराधों या मानवता के विरुद्ध अपराधों से बचने के लिए ढाल के तौर पर नहीं किया जा सकता है पर यह कह पाना मुश्किल है कि गद्दाफी के शासन ने जो निश्चित रूप से निरंकुश था, इनमें से कुछ भी किया हो अथवा बड़े स्तर पर नागरिकों को उससे अधिक खतरा पैदा किया हो जितना कि अफगानिस्तान व इराक में पश्चिमी दखल ने, या इस्राइल की लूटमार ने अपने कब्जे वाले इलाकों, खासतौर पर गाजा में किया है, जहां नागरिकों पर हमले के लिए हर बार लड़ाकू विमानों का प्रयोग किया गया.

...और फिर लीबिया पर मार्च में हवाई हमले शुरू करने के पूर्व से ही नाटो की सेनाएं विद्रोहियों को हथियारों की आपूर्ति करतीं और मिस्र के शिविरों में गुप्त रूप से उनको प्रशिक्षण देती रही थीं जिनके लिए पैसे का प्रबंध सऊदी अरब ने किया था, और फिर गद्दाफी की फौजों से लड़ने के लिए उनको चोरी-छिपे वापस लीबिया भेजती रही थीं. लीबिया के विरुद्ध कार्रवाई करने में पश्चिमी देशों के जोश और संरा के नियमों को तोड़ने-मोड़ने तथा सीधे जमीनी हमले को छोड़ जबरदस्त सैनिक अभियान चलाने में उनकी जोरदार दिलचस्पी इस्राइल के प्रति उनके लाड़ प्यार के और अंतरराष्ट्रीय कानून को उसके खिलाफ याद करने में उनकी अनिच्छा के बिलकुल विपरीत है जो निश्चित रूप से दुनिया का एक सबसे बेलगाम राज्य है.

गद्दाफी को सत्ता से हटाने के लिए पश्चिमी देशों द्वारा मानव अधिकारों और जनतंत्र की बात करना एक ढोंग है जो उसके शासन के साथ अभी हाल तक उनके निकट सहयोग से पता चलता है. इस सहयोग के खतरनाक सबूत 2 सितम्बर को लीबिया के भूतपूर्व खुफिया प्रमुख के छोड़े हुए आफिस से पत्रकारों और ह्रूमेन राइट्स वॉच को मिले हैं. बड़ी भारी संख्या में अरबी के दस्तावेजों के बीच अंग्रेजी भाषा में दस्तावेजों की ऐसी कम से कम तीन जिल्दें मिली थीं जिनमें से एक पर सीआईए और अन्य पर एमआई-6 अंकित था.

इनमें लीबियाई खुफिया एजेंसी और सीआईए के बीच निकट सम्बंधों के बारे में नए विवरण मिले हैं. इनमें से एक सबसे हैरान करने वाले में कहा गया है, असाधारण सम्बंधों की नीति के एक अंग के तौर पर संयुक्त राज्य अमेरिका ने संदेहास्पद आतंकवादियों को पूछताछ के लिए कम से कम आठ बार लीबिया भेजा था जबकि सताने के मामले इसकी बदनामी के बारे में सब जानते थे.

दि न्यूयॉर्क टाइम्स की रिपोर्ट है, हालांकि यह जानकारी थी कि कि पश्चिमी गुप्तचर सेवाओं ने लीबिया के साथ सहयोग करने की शुरुआत 2004 में इसके द्वारा गैर-परम्परागत शस्त्रास्त्रों का निर्माण करने के अपने कार्यक्रम को छोड़ने के बाद कर दी थी, परंतु विद्रोहियों का कब्जा होने के बाद पीछे छोड़ी हुई फाइलों से पता चलता है कि सीआईए और इसके ब्रिट्रिश समकक्ष एमआई-6 के साथ इसके सम्बंध जितने समझे जाते थे उससे कहीं अधिक व्यापक थे.

कुछ दस्तावेजों से यह संकेत मिलता है कि ब्रिटिश एजेंसी लीबियाइयों के लिए फोन नम्बरों तक पता लगाने को तैयार थी, दूसरा दस्तावेज एक उस गैर परम्परागत हथियारों का त्याग करने के बारे में गद्दाफी के प्रस्तावित भाषण का प्रारूप लगता है जिसे अमेरिकियों ने लिखा था.

सीआईए ने विभिन्न देशों से अमेरिका के प्रमुख कॉरपोरेशनों की सांठगांठ से मिले लक्ज़री जेट विमानों का इस्तेमाल करके संदिग्धों का अपहरण किया और उनको लीबिया पहुंचाया था. इनमें त्रिपोली में गद्दाफी विरोधी सेना का मौजूदा कमांडर अब्देल हकीम बेलहज और लीबियन इस्लामिक फाइटिंग ग्रुप का पूर्व नेता भी है जो अब कहता है कि वह अमेरिका और नाटो सहयोगियों का आभारी है. उसको अमेरिका की ओर से मलयेशिया में रोका गया, थाईलैंड भेजा गया, और कथित तौर पर सीआईए एजेंटों द्वारा सताया गया था.

इसके बाद उसे लीबिया वापस भेज दिया गया जहां छह साल तक उसे तनहाई में बंद रखा गया था. लीबिया में लड़ाई के पीछे पश्चिम के अपने तर्क और तथ्य हो सकते हैं पर इनके आधार पर हकीकत तो नहीं छुपाई जा सकती कि इसके पीछे लीबिया का तेल है. फिर क्या कहने की जरूरत है कि वहां पश्चिम की जीत एक त्रासदी ही है!

Posted by राजबीर सिंह at 9:49 pm.
 

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